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हरिद्वार का इतिहास
नवगठित उत्तराखण्ड राज्य के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं धार्मिक विकास में हरिद्वार का महत्वपूर्ण स्थान है। ऐतिहासिक संदर्भ में भी हरिद्वार सदैव से ही उत्तराखण्डअथवा देवभूमि का अभिन्न भाग ही माना जाता रहा है। इसी विशिष्टता के आधार पर राज्य पुनर्गठन विधेयक 2000 में हरिद्वार को उत्तराखण्डमें शामिल किया गया।

इसके पीछे अन्य भी कई महत्वपूर्ण कारण रहे है, विशेष रूप से भौगोलिक रूप से समीपता एवं कुम्भ क्षेत्र को अविभक्त रखे जाने का बुद्धिमता पूर्ण प्रयास उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में भी जनमानस के मन में सदैव हरिद्वार को देवभूमि का प्रवेश द्वार के रूप में माना जाता रहा है।

हरिद्वार से ही चार धाम की यात्रा शुरू होती है। पौराणिक संदर्भों में भी हरिद्वार उत्तराखण्ड का एक प्रमुख हिस्सा रहा है। हालांकि संयुक्त प्रांत उत्तर प्रदेश तथा आजादी के बाद हरिद्वार कुछ समय तक सहारनपुर मंडल का भाग था। इसकी मुख्य वजह तत्कालीन समय मे कानून एवं व्यवस्था को अधिक मजबूत आधार देने की मानी जाती है।

उत्तराखण्ड  के गठन का मूल उद्देश्य सामाजिक, आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने के साथ ही लोगों को उनके अधिकार प्रदान किया जाना भी शामिल था।

चूंकि उत्तर प्रदेश एक विशाल राज्य है और जिन क्षेत्रों को उत्तराखण्ड में शामिल किया गया वहाँ विकास की गति धीमी रही है किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि यह क्षेत्र उपेक्षित रहा है, पर उत्तर की ओर स्थित इस अंचल को विकास की मुख्य एवं प्रवल धारा में शामिल करने एवं जन आकांक्षाओं की पूर्ति को मद्देनजर रखते हुए उत्तरांचल राज्य का गठन किया गया।

उत्तर प्रदेश के विभाजन के बाद अलग अस्तित्व में आये उत्तराखण्ड राज्य ने विकास की नई गाथाओं का सृजन किया। इसके लिए राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर नीतियाँ तय की गयी तथा नियोजन के प्रति राज्य सरकार का स्पष्ट  दृष्टिकोण भी रहा।

जल, जंगल, जमीन के प्रति लोगों में भावनात्मक लगाव पैदा करने की कोशिश की गयी। पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में माननीय नारायण दत्त तिवारी के कुशल नेतृत्व में दीर्घकालिक विकास योजनाओं को पहली प्राथमिकता में रखा गया।

बुनियादी समस्याओं के निस्तारण के साथ ही ढांचागत विकास को नया स्वरूप दिया गया। राज्य की मजबूत नींव डाली गयी परिणाम स्वरूप चौतरफा विकास परिलक्षित होने लगा।

इस विकास में हरिद्वार को सर्वोपरि स्थान पर रखा गया। राज्य गठन के पूर्व तक कुम्भ एवं अर्द्धकुम्भ महापवों पर अस्थाई निर्माण कार्य किये जाते थे, उत्तराखण्ड सरकार ने स्थाई कार्यों को सर्वोच्च वरीयता प्रदान की है।

इसी नीति के कारण हरिद्वार मेला नियंत्रण का विशाल परिसर इस विकास की कहानी को स्वयं सिद्ध कर देता है। इसके अलावा सड़क, पुल, चिकित्सा, पेयजल, कानून व्यवस्था को नया आयाम दिया जा सका। वर्ष 2010 के महाकुम्भ पर्व को देखते हुए हरिद्वार के विकास हेतु भी  सार्थक प्रयास शासन द्वारा किये गये थे ।

अगर राज्य गठन के पूर्व के चार वर्षों की तुलना राज्य गठन के बाद के चार वर्षों से की जाये तो तस्वीर बिल्कुल साफ नजर आती है।
लोनिवि, ग्राम्य विकास अभिकरण, नगरी विकास अभिकरण, बाल विकास, पंचायती राज, अक्षय ऊर्जा, उद्यान, मत्स्य पालन, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य, पेयजल आदि विभागों का तुलनात्मक अध्ययन यह साफ करता है कि राज्य गठन के बाद हरिद्वार के विकास ने नये आयाम स्थापित किये हैं।

अविभाजित उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नारायण दत्त तिवारी के शासन काल में 28 दिसम्बर 1988 को हरिद्वार जनपद का सृजन हुआ। नये जनपद का प्रथम जिलाधिकारी बनने का सौभाग्य श्री के.एन. पाण्डे को मिला। जनता की मांग पर 30 सितम्बर 1989 को एक और तहसील लक्सर का गठन किया गया। इस तरह हरिद्वार में तीन तहसील शामिल हो गयी।

दीर्घकाल के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने 15 अप्रैल 1997 को मेरठ मंडल को विभाजित कर सहारनपुर मंडल का सृजन किया। हरिद्वार, सहारनपुर एवं मुजफ्फर नगर जनपद को इस मंडल में शामिल किया गया।

9 नवम्बर 2000 को उत्तराखण्ड राज्य के अभ्युदय के साथ ही हरिद्वार को गढ़वाल मण्डल में शामिल कर लिया गया। इस तरह हरिद्वार नवोदित उत्तराखण्ड राज्य का अटूट हिस्सा बन गया।

उल्लेखनीय है कि वर्ष 1984 तक हरिद्वार रूड़की तहसील का एक भाग था। तब रूड़की तहसील जनपद सहारनपुर के क्षेत्रान्तर्गत थी। सहारनपुर मेरठ मंडल का प्रमुख जिला माना जाता था। उत्तराखण्ड राज्य के अभ्युदय के बाद हरिद्वार में विकास की गंगा बहनी शुरू हुई। तब से हरिद्वार में चौतरफा विकास कार्य सम्पादित किये जा रहे हैं।

प्रदेश सरकार ने जनपद हरिद्वार के भूमि अधिग्रहण संबंधी मामलों के निस्तारण हेतु भूमि अध्याप्ति इकाई, हरिद्वार का गठन किया।